भाग 6
संस्कृत, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान : एक अनुपम संगम
भारतीय ज्ञान-विज्ञान की अनन्त शाखाएँ और अनन्त संभावनाएँ (Infinite branches and infinite possibilities of Indian knowledge and science
)
“वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।”
– स्वामी दयानंद सरस्वती, आर्यसमाज का तीसरा नियम
वैदिक साहित्य का महत्त्व समस्त मानव समुदाय और इस जगत् के लिए प्रमाणिक एवं उपयोगी है। इस बात को वर्तमान विश्व जानते हुए भी अनजान बनने का प्रयास करता है। न जानें क्यों, हम अपने पूर्वजों को जंगली और नासमझ सिद्ध करना चाहते हैं। न जानें क्यों, हम अपने आपको अधिक वैज्ञानिक, तार्किक और बुद्धिमान बताकर प्राचीन काल के प्रयोगों और नवाचारों को महत्त्व नहीं देना चाहते। शायद इसलिए जिससे हम अपने आप को उनसे बेहतर कह सकें, स्वयं को उन्नत और प्रगतिशील दिखा सकें, अपनी गलतियों पर परदा डाल सकें और यह कह सकें कि हम ही मानव को जंगली जीवन से निकलकर शहर की चकाचौंध कर देने वाली इमारतों में लाए हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमने वेद एवं उन पर आधारित अनेक शाखाओं, प्रशाखाओं, शास्त्रों, काव्यों, उनमें बताए जीवन्त प्रयोगों के द्वारा प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक की यात्रा तय की है। इस ज्ञान-विज्ञान की अनुपम धारा ने मानव को एक सुदीर्घ काल तक एक-दूसरे से जुड़ने और एक साथ मिलकर अग्रसर होने का संदेश दिया है। विज्ञान और अध्यात्म के साथ व्यक्ति और समष्टि को भी संतुलित किया है। एक व्यक्ति हो या संपूर्ण विश्व, सभी को एक कुटुम्ब के रूप में विकसित होने का अवसर दिया है।
प्राचीन भारतीय ज्ञान (Ancient Indian Knowledge)
वैदिक विज्ञान की यह विशेषता सर्वोपरि है कि वह विज्ञान को कुछ प्रयोगों, अनुसंधानों और मात्र मानवीय सुविधा के विकास के आधार पर नहीं, अपितु आर्ष सिद्धान्तों पर आधारित जीव, जगत् और भविष्य की सर्वश्रेष्ठ, सर्वहितकारी, सभी प्राणियों के कल्याण और समन्वय के साधन के रूप में देखता है। हम अपने जीवन को निरन्तर प्रगतिशील बनाए रखना चाहते हैं किन्तु इसकी कीमत पर्यावरण और अन्य प्राणी चुकाए, यह कदापि उचित नहीं।
“वयं स्याम पतयो रयीणाम्” का वेदवाक्य हमें समृद्ध, समुन्नत और प्रगतिशील बने रहने की प्रेरणा देता है और इसीलिए वैदिक विज्ञान की उन्नति आपको प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में मिलेगी। हमें इस बात पर गौरवान्वित होना चाहिए कि प्राचीन काल के भारत में जिस प्रकार ज्ञान-विज्ञान के लिए प्रयत्न हुए, उस प्रकार के प्रयत्न विश्व में अन्यत्र नहीं दिखाई देते। भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र, गणित, वनस्पतिशास्त्र आदि की अनेक शाखाएँ अपने चरमोत्कर्ष पर थीं।
वैदिक गणित (Vedic Mathematics)
गणित की दशमलव पद्धति एवं 1 से 9 तक की गणना और शून्य भारत से ही सम्पूर्ण विश्व तक पहुँचे थे। जिसे हम पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जानते हैं, वह तो शुल्व सूत्र में वर्णित बौधायन प्रमेय निकला। वर्गमूल, घनमूल, बीजगणित, वर्गीय समीकरण, रेखागणित, भूमिति, त्रिकोणमिति जैसे गणितीय विषयों का पर्याप्त विकास प्राचीन शास्त्रों में देखा जा सकता है। पाई का मान 3.1416926 आर्यभट के ग्रंथ में स्पष्ट रूप से उद्धृत है। इस सन्दर्भ में आर्यभट का यह श्लोक द्रष्टव्य है-
“चतुरधिकं शतम् अष्टगुणं द्विषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृन्नो वृत्तपरिणाहः।।” – आर्यभटीयम् गणितपाद श्लोक 10
इस सूत्र के अनुसार 100 में 4 जोड़ें और फिर 8 से गुणा करें और फिर 62000 जोड़ें। इस नियम से 20000 परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है और इस व्यास को 20000 से भाग देने पर प्राप्त होने वाला परिणाम ही पाई का मान कहलाता है।
(100 + 4) x 8 + 62,000 = 62,832/20000 = 3.1416
धातुशास्त्र, स्थापत्य, शिल्पविज्ञान आदि में कितना कुछ था जिसके प्राचीन अवशेष आज भी हमें आश्चर्य चकित कर देते हैं। महरौली का लौह स्तम्भ हो या कोणार्क का सूर्य मंदिर, अजंता एलोरा की गुफाएँ हों या राजस्थान के विशाल और सुरक्षित दुर्ग, पद्मनाभ मंदिर का सूर्यदर्शन हो या विदिशा का गरुड़ स्तम्भ (हेलिडोरस पिलर), रामसेतु का विस्मयकारी सत्य हो या “जन्तर-मन्तर” नाम से प्रसिद्ध पाषाण वेधशालाओं का आश्चर्यचकित करता अस्तित्व। इन्हें देखना और इन पर गर्व करना हमें अच्छा लगता है किन्तु इनके आधार बने शास्त्रों के विज्ञान को स्वीकार करना अजीब लगता है।
हमें अपने प्राचीन विज्ञान के प्रति एक साफ़ नज़रिये की ज़रूरत है और उस नज़रिये को आधुनिक जीवन और भावी सन्ततियों के लिए उपयोगी बनाने की ज़रूरत है। अपनी गलतियों से सीखना भी एक तरीका है किन्तु यदि गलतियाँ किए बिना प्रगति हो सके तो उसका चुनाव किया जाना श्रेयस्कर है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की कुल 1131 शाखाएँ, 4 उपवेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, वेदांग, दर्शन, पुराण, स्मृति साहित्य और उनके साथ अनेक ग्रंथों की विशाल श्रेणी हमें अपनी ओर बुला रही है। इन्हें जानकर भी हम बहुत कुछ ऐसा जान सकते हैं, जिसे अभी तक नहीं जान पाए हैं।
महर्षि गौतम, बौधायन, आपस्तम्भ, कात्यायन, मैत्रायण, वाराह, याज्ञवल्क्य, रैक्व, लोमश, वसिष्ठ, वात्स्यायन, वामदेव, वाल्मीकि, विश्वश्रवा, विश्वामित्र, वेदव्यास, वैशम्पायन, शरभंग, शुकदेव, शुक्राचार्य, सत्यकाम जाबाल, सुतीक्ष्ण, सुमन्तुमुनि, हिरण्यरोम, अष्टावक्र जैसे अनेक आचार्यों ने अपने तपोबल से जिसे प्राप्त किया था वही ज्ञान था, वही विज्ञान था और वही अध्यात्म था। शायद ऐसा लगता है कि हम इसे ठीक से समझ नहीं पाए हैं या ऐसा भी हो सकता है कि हम उन्हें समझने की योग्यता खो चुके हैं।
वर्तमान आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हमें शायद यही सिखा रही है कि अनेक कार्यों के लिए अनेक साधनों की ज़रूरत नहीं होती, अपितु एक सशक्त और सफल प्रयोग की ज़रूरत है जो आपके बारे में सही निर्णय लेने की क्षमता रखे। सोचिए, मानव निर्मित यह कृत्रिम बुद्धिमत्ता यदि इतना कुछ कर सकती है तो विवेक शक्ति से युक्त मानवीय बुद्धि क्या कुछ नहीं कर सकती।
बुद्धि कौशल की इसी विवेक शक्ति ने आर्ष विज्ञान को जन्म दिया, उस विज्ञान की अनेक शाखा, प्रशाखाओं को हम तक पहुँचाया। इसके लिए वर्षों का अनुभव, स्पष्ट और सटीक जानकारी, सर्वकल्याण की उदात्त दृष्टि, विज्ञान रूपी कौशल और अनुसंधान रूपी तपस्या की आवश्यकता होती है और यह सब कुछ हमें प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान की अनवरत धारा में प्राप्त हो सकता है। शर्त केवल एक ही है कि पूरे मनोयोग से उसके लिए प्रयत्नशील बनें…
उसका श्रवण, मनन और निदिध्यासन करें…
इति अलम्…
- डॉ. आशुतोष पारीक की लेखनी से