भारतीय संस्कृति : एक अनुपम यात्रा – सोपान – 1
“भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे, संस्कृतं संस्कृतिस्तथा।।”
भारत के भारत होने का मूल है संस्कृत और संस्कृति। “संस्कृति” जीवन का आधार है और “संस्कृत” उससे जुड़ने का सशक्त माध्यम। इन दोनों की पारस्परिक सुदृढता ही भारत को (भा+रत) “भा” अर्थात् ज्ञान रूपी प्रकाश में “रत” लगातार अग्रसर होने वाली बनाती है।
जब इकबाल कहते हैं – “यूनान मिस्र रोमां, सब मिट गए जहाँ से। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।।” तब इसमें जो सुरक्षित, संवर्धित, पोषित करने वाली यह “कुछ बात” है, वही संस्कृति है।
आर्ष संस्कृति
भारतीय संस्कृति को “आर्ष” शब्द से भी पुकारा जाता है। “आर्ष” अर्थात् ऋषि-मुनियों के द्वारा प्रतिपादित। ये ऋषि तत्कालीन जगत् के विचारक, वैज्ञानिक और तत्त्ववेत्ता थे। इन्हीं के द्वारा सुदीर्घकाल तक जाँची, परखी अनुभूत सहजता का अनुपम समन्वय है भारतीय संस्कृति। पण्डित मदन मोहन मालवीय जी ने कहा था – “भारतीय एकता अक्षुण्ण है क्योंकि भारतीय संस्कृति की धारा निरंतर बहती रही है और बहती रहेगी।” अतः भारत की एकता, अखण्डता और सुरक्षा के लिए भारतीय संस्कृति के बारे में जानना, समझना और उसे जीवन में धरना करना अत्यावश्यक है।
भारतीय संस्कृति की अनुपम यात्रा पर चलने से पूर्व एक बात जान लेना बहुत ज़रूरी है कि समाज और सभ्यता में जो कुछ प्रचलित था या है वह सब-कुछ संस्कृति नहीं है। संस्कृति को जानने का प्रयास जब भी करें तो वहाँ के समाज और वहाँ के लोगों के स्वार्थों, दोषों और संकुचित मानसिकता को पहले अलग कर लें। संस्कृति इतिहास नहीं, अपितु जल की अनवरत बहती निर्मल धारा है। यदि यह जलधारा अशुद्ध हो जाती है तो इसका कारण वह जल नहीं, बल्कि उसके आसपास विद्यमान लोगों के अदूरदर्शी स्वार्थ हैं।
महात्मा गान्धी ने एक बार कहा था- “It is good to swim in waters of tradition but to sink in them is suicide.” स्पष्ट है कि परम्पराओं को सजगता, सजीवता, सामाजिक आवश्यकता, तार्किकता और दूरदर्शिता के साथ जीना आनन्ददायक होता है किन्तु समझे बिना अन्धविश्वास के आधार पर पाखण्ड और आडम्बर के साथ उन परम्पराओं में डूब जाना मृत्यु का कारण बनता है।
वाल्टर लिप्पमन (Walter Lippmann) के शब्दों में “Culture is the name for what people are interested in, their thoughts, their models, the books they read and the speeches they hear.” अर्थात् संस्कृति वह है जो हमारी रुचि, हमारे आदर्शों और हमारी पुस्तकों, हमारे अध्ययन व वक्तव्यों में दिखाई देती है। लेकिन क्या हमें लगता है कि इनमें से कुछ भी हमें अपनी संस्कृति की ओर ले जा रहा है।
आज भारतीय संस्कृति पर अनेक सवाल उठाए जाते हैं। इसके तीन मूल कारण हैं-
1. भारतीय संस्कृति के मूल भाव को न समझना।
2. परम्परा के नाम पर कुछ भी स्वीकार किए जाना।
3. आत्मगौरव और आत्मविश्वास का अभाव।
आज हम अपने ही शास्त्रों पर बड़ी ही सरलता से अविश्वास कर लेते हैं। उन्हें बिना पढ़े ही यह कहने में गौरव का अनुभव कर लेते हैं कि यह सब बकवास है। स्वयं को वैज्ञानिक युग का कहते हैं लेकिन अपने ही प्राचीन वैभव को जानने के लिए नए प्रयोग करने से डरते हैं। हम शरीर से भले ही स्वतन्त्र हो गए हैं किन्तु गुलामी की मानसिकता हमें अन्दर ही अन्दर खोखला कर चुकी है।
हम स्वतन्त्र रूप से सोचने से डरते हैं और जिसे हम आज़ाद सोच कहते हैं, वह भी गुलामी की भयग्रस्त नकल का ही परिणाम है और यही कारण है कि स्वयं को कमज़ोर मान चुके हम दूसरे की लाठी का सहारा लेकर जैसा वे करें, जैसा वे पढ़ें, जिसे वे विकसित कहें, जिसे वे ठीक समझें, उसी की ओर अपने आपको खींचे चले जा रहे हैं।
भारतीय संस्कृति पर्याय है “वसुधैव कुटुम्बकम्” का, जीवन की पूर्णता का, मनुष्यता और सर्वकल्याण का, शैक्षिक अनुसन्धान और “विद्ययाSमृतमश्नुते” का, वर्णाश्रमव्यवस्था के परिपूर्ण समाज और उदात्त जीवन का, सोलह संस्कारों के सर्वांगीण विकास का, पंचमहायज्ञ के साथ यज्ञ के द्वारा पर्यावरणीय सन्तुलन का, आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक परमसत्य की प्राप्ति का, मोक्ष के परमलक्ष्य की अवाप्ति का, स्वयं को मनुष्य के रूप में स्थापित कर मनुष्य से देव और देव से ऋषि बन जाने की यात्रा का।
कभी-कभी हम दिखाने के लिए गर्व कर लेते हैं अपनी संस्कृति की प्राचीनता पर, उसे “विश्वगुरु” कहने के गौरव पर; लेकिन अपने ही हृदय में कौंध रहे अपने ही प्रश्नों के उत्तर तलाशने के प्रयास नहीं करते। कितनी विडम्बना है कि आज हमारी शिक्षा और दीक्षा का हमारी संस्कृति से कोई वास्ता नहीं रह गया है। सब-कुछ आजीविका के अधीन है। अर्थसाधना परम लक्ष्य है और स्वार्थ की पूर्ति पहली आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृति के तत्त्व कभी-कभी किसी पाठ्यक्रम के किसी पाठ में ज़रूर नज़र आ जाते हैं लेकिन उनको पढ़ने और पढ़ाने का उद्देश्य उसके निर्धारित अंकों तक ही सीमित रह जाता है। वास्तविकता यह है कि हमें किस ओर जाना है?, क्यों जाना है?, कब जाना है? यह पूरी निष्ठा के साथ तय ही नहीं कर पा रहे हैं। अनिश्चितता सदैव कमज़ोर बनाती है। निश्चितता सबल का परिचायक होती है। हम सबल कहलाना चाहते हैं, होना नहीं। हम अपने आपको गौरवशाली दिखाना चाहते हैं, होना नहीं। हम विदेश जाकर भारतीय होने की पहचान दिखाना चाहते हैं, और अपने ही देश में तो हम बँटे हुए ही ठीक हैं।
आइए इस यात्रा के साथी बनें, भारतीय संस्कृति के गौरव से अभिभूत हो जाएँ, जीवन की वास्तविक लौकिक और अलौकिक दृष्टि को अपनाएँ… और मिलकर वैदिक घोष करें- “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”…
– डॉ. आशुतोष पारीक संस्कृतायनम्
“कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”…
धन्यवाद महोदय,
इस लेख को पढ़ने से बहुत सी नई बातें अपनी भारतीय संस्कृति के बारे में जानने को मिली।
इसी प्रकार के और लिखो, जिससे भारतीय संस्कृति के बारे में हमें और भी जानकारियाँ प्राप्त हो सके, यही आशा है।
धन्यवाद
Nalini Pareek
nalinipareek24@gmail.com
Very comprehensive article.
Shows how sanskriti and Sanskrit are inseparably connected.
Specifically pin points the basic elements of Bhartiya sanskriti in its universality.
Worth pondering.