वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन का परिणाम: सनातन दृष्टि
“संगच्छध्वं संवदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे, सञ्जानाना उपासते।।” ऋग्वेद 10.191.2 “साथ चलने, एक स्वर में बोलने और एक दूसरे के मन को जानने वाला समाज ही अपने युग को बेहतर बनाने की सामर्थ्य से युक्त हो सकता है और ऐसे युग में जीने वाले स्वयं के लिए बेहतर वर्तमान और आने…