“कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥” यजुर्वेद 40.2
“कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करो” इस बात को सुनते ही हम उसकी अनुपालना में लग जाते हैं, अच्छी बात है लेकिन वैदिक दृष्टि यहीं समाप्त नहीं होती। ये कर्म कैसे हों? ये हमारे जीवन, उसकी सुरक्षा, संरक्षा और प्रेरणा के वाहक कैसे होंगे? इन सबका चिंतन, मनन करते हुए आगे बढ़ने का नाम है आर्षजीवन।
दीर्घ जीवन जीने की अभिलाषा किसकी नहीं होती?
हम सभी दीर्घायु होना चाहते हैं, स्वस्थ जीवन जीना चाहते हैं, स्वयं समृद्ध होकर आने वाली पीढ़ी को समृद्धि की ओर लेकर जाना चाहते हैं और इसीलिए वेदमन्त्र में कामना की गई- “वयं स्याम पतयो रयीणाम्” अर्थात् हम समस्त सुख और ऐश्वर्यों के स्वामी बनें। वेद कभी भी दरिद्र होने की बात नहीं करते। वे मानवमात्र को समर्थ, सशक्त और जीवनीय शक्ति से समृद्ध देखना चाहते हैं।
किन्तु क्या हैं ये ऐश्वर्य और सुख? किनकी कामना और पूर्ति करते हुए भी वैदिक महर्षि न केवल इस पृथ्वी की अपितु इस पर पनप रहे जीवन की रक्षा और प्रेरणा के स्रोत बन सके? आज का युग जिस तरह स्वयं को समृद्ध बनाना चाह रहा है, उससे लगता नहीं कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ दीर्घकाल तक समृद्ध रह सकेंगी। हम निश्चय ही उन्हें तकनीक का हस्तान्तरण कर रहे हैं किन्तु उसके साथ पर्यावरणरूपी जीवनीय अमृत छीन भी रहे हैं। हम उन्हें जीतना तो सिखा रहे हैं लेकिन जीना नहीं।
जीवन की रक्षा और प्रेरणा का मूलमन्त्र
यह बात सच है कि आज का युग कई मायनों में पहले से बेहतर है लेकिन यह भी सच है कि इस बेहतर के बाद अब और बेहतर होने की सम्भावना बहुत कम है। स्वयं को जीवित रखने से यदि हम दीर्घायु होते हैं तो अन्यों के जीवित, पोषित, संवर्धित होने से हमारे भावी जीवन की प्रत्याशा बलवती होती है। “जीओ और जीने दो” यह जीवन की रक्षा और प्रेरणा का मूलमन्त्र है। जैसे-जैसे इस प्रेरणा से हम दूर होते जाएँगे, वैसे-वैसे हम अपने जीवन की रक्षा को ख़तरे में महसूस करते जाएँगे।
वैदिक जीवन के पञ्च-महायज्ञ {ब्रह्म, दैव, पितृ, भूत और अतिथियज्ञ} इसी जीवन की रक्षा और प्रेरणा के केन्द्रबिन्दु थे। करने योग्य कर्म और धारण करने योग्य धर्म का मार्ग ही श्रेयस्कर है। जनसंख्या वृद्धि जहाँ एक ओर इस विश्व की सबसे बड़ी समस्या है, वहीं इस विशाल जनसमुदाय के लिए जीवनीय और रक्षणीय आवश्यकताओं को पूरा करने की समस्या उससे भी बड़ी है।
सादा जीवन उच्च विचार
- “सादा जीवन उच्च विचार” की महत्ता को सब जानते हैं लेकिन मानते नहीं। इसी सन्दर्भ में कास्ट और गीथी का एक संवाद है। कास्ट कहते हैं- “क्या कुदरत ने और उत्तम मस्तिष्कों ने दु:खों को दूर करने वाला कोई पर्याप्त मार्ग नहीं ढूँढा?”
- इस पर गीथी कहते हैं- “हाँ! दुःखों को दूर करने का ऐसा उपाय प्राप्त हुआ है जो डॉक्टर, वैद्य, सोना, चाँदी और जादू-टोने से भिन्न है। सामने खेत को देखो और कुदाली फावड़े से काम करो। आत्मसंयम रखो और व्यर्थ की आशाओं को छोड़ दो। अपनी समझ शक्ति और संकल्प बल को परिमित क्षेत्र में बढ़ने दो। अमिश्र भोजन और फलाहार से अपने शरीर को बढ़ने दो। गाय बैल से मित्रतापूर्वक व्यवहार करो। जिस ज़मीन की पैदावार तुम पाते हो और उसके लिए जो कुछ काम करते हो, उसे छोटा मत समझो। मुझ पर विश्वास करो।”
- टॉलस्टॉय की पुस्तक “Kingdom of Heaven is within you” अहिंसा और प्रेम की वैदिक दृष्टि को ही अभिव्यक्त करती है। आज जबकि युद्ध का काला साया सम्पूर्ण विश्व पर मंडरा रहा है, ऐसे समय में वैदिक जीवन का उदात्त स्वरूप ही है जो “वसुधैव कुटुम्बकम्” को अपनाने का संदेश देता है।
- लेकिन आज हम जीवन से अधिक विज्ञान को, संदेश से अधिक आदेश को, उपदेश से अधिक किसी एक देश को, उपयोग से अधिक प्रयोग को, प्रयास से अधिक विलास को, समझ से अधिक लालच को महत्त्व दे रहे हैं। वास्तव में यदि हम चाहें तो क्या नहीं कर सकते किन्तु यह चाह करे कौन?
विज्ञान के प्रयोग रोगों से लड़ने में मदद करते हैं, किन्तु उन रोगों की उत्पत्ति को कैसे रोका जाए इसके लिए वैदिक दृष्टि ही सहायक और प्रेरक हो सकती है। हमें स्मार्ट सिटी चाहिए, किन्तु उसे स्मार्ट बनाए रखने की प्रेरणा यदि सम्पूर्ण विश्व में एक समान रूप में होगी तभी हम अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर पाएँगे। अन्यथा अनजाने में उस बुद्धिमत्ता पर गिरा एक बम का गोला हमें सैकड़ों-हज़ारों साल पीछे धकेल देगा। सत्य तो यह है कि आज आधुनिकता की दौड़ में दौड़ने वाले ही स्वयं को बुद्धिमान् मानते हैं लेकिन जीवन इससे कहीं अधिक आगे से शुरु होता है।
जीवन के मोल को समझें, न केवल स्वयं के अपितु दूसरों के भी। यही बोध हमें अपने लिए सुरक्षित और पोषित वातावरण बनाने में सहायक हो सकता है और इसीलिए याज्ञवल्क्य जी मैत्रेयी से कहते हैं – “आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:” (बृहदारण्यक उपनिषद्) – यह आत्मा ही देखने (जानने) योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है तथा निदिध्यासन (ध्यान) करने योग्य है। इति अलम्…
– डॉ. आशुतोष पारीक की लेखनी से
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