“संगच्छध्वं संवदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे, सञ्जानाना उपासते।।” ऋग्वेद 10.191.2
“साथ चलने, एक स्वर में बोलने और एक दूसरे के मन को जानने वाला समाज ही अपने युग को बेहतर बनाने की सामर्थ्य से युक्त हो सकता है और ऐसे युग में जीने वाले स्वयं के लिए बेहतर वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर भविष्य की संकल्पना करने वाले होते हैं।” ऋग्वेद का यह मन्त्र हमें ऐसी ही सनातन दृष्टि को प्रदान करने वाला है।
आधुनिक कौन है?
युग कोई भी हो, उस समय में जीने वालों के लिए वह “आधुनिक” ही कहलाता है क्योंकि आधुनिक शब्द “अधुना” से बना है जिसका अर्थ ही है – अब / इस समय। अतः हम स्वयं को केवल आधुनिक (Modern) कहकर गौरवान्वित नहीं हो सकते। हम स्वयं पर गर्व केवल तभी कर सकते हैं, जब हमारी आने वाली पीढ़ी हम पर गर्व करे, वह हमें देवतुल्य समझे। हम उनके लिए ऐसा पर्यावरण छोड़ कर जाएँ, जिसके वे अधिकारी हैं क्योंकि आज हमें जो कुछ मिला है, उसके लिए हमने कुछ नहीं किया है।
वह हमारे पूर्वजों की वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टि का ही परिणाम है। हम वर्तमान को जीते हैं और भविष्य का निर्माण करते हैं। हम भले ही पूर्वकाल की कुछ कमियों को दिखाकर अपने को उनसे बेहतर साबित करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन सच तो यह है कि हम उन कुछ कमियों में अपनी ख़तरनाक गलतियों को जोड़ रहे हैं।
अपने विद्यालय में हम सभी ने प्रायः “विज्ञान वरदान या अभिशाप” इस विषय पर कई बार निबन्ध लिखे और पढ़े होंगे, बड़े-बड़े व्याख्यान सुने होंगे, पक्ष-विपक्ष में भाषण दिए होंगे… लेकिन क्या हम यह विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि हमने इसके मर्म को समझ लिया, शायद नहीं…। वर्तमान सामाजिक त्रासदियाँ और बँटवारे की सोच ने हमें केवल स्वयं को आगे बढ़ाने की मानसिकता से सराबोर कर दिया है। अब हम अपने अलावा किसी और को देखना पसन्द नहीं करते और यही कारण है कि हम अपना भविष्य भी नहीं देख पा रहे हैं…।
चिकित्सा क्षेत्र हो या कृषि क्षेत्र, तकनीक हो या नई औषधियों की खोज, मनोरंजन हो या बेहतर संसाधन की उपलब्धता को सुनिश्चित करना, ये सब मानवीय कष्टों, पीड़ाओं को कम करने के लिए हैं। लेकिन प्रश्न आज भी वही है कि इन कष्टों को उत्पन्न किसने किया, इन पीड़ाओं के पीछे कारण कौन है? उत्तर एक ही है – हम स्वयम्।
हम प्रतिक्रियावादी होकर जीवन में आगे बढ़ने का ख़्वाब देखते हैं…
इस पर भी विडम्बना यह है कि हम कष्टों को दूर करने के लिए प्रतिक्रियावादी (Reactionary) बने हुए हैं। हमारी रचनात्मकता इसी प्रतिक्रिया का परिणाम है और ये प्रतिक्रियाएँ हमें और अधिक प्रतिक्रिया के लिए मजबूर करती हैं। हम प्रतिक्रियाओं के एक ऐसे जाल में फँस गए हैं कि अब हमारे लिए दूर तक देख पाना सम्भव नहीं रहा। क्योंकि आज की दूरदृष्टि भी प्रतिक्रियामात्र है, जो कुछ ही समय में बदलनी पड़ेगी।
हमारे विकास का प्रत्येक कदम हमारे ही दोषों को छिपाने की कोशिश के रूप में नज़र आता है। दाँतों की चिकित्सा ने उन्नति की लेकिन क्यों? क्योंकि हमारे खानपान ने हमारे दाँतों को रोगों का घर बना दिया है। कृषि और औद्योगिक अपशिष्टों के निस्तारण के लिए तकनीक विकसित की जा रही है लेकिन क्यों? क्योंकि अपशिष्ट की समस्या को हमने मानवता के लिए ख़तरा बना दिया है। अब हम पर्यावरण के अनुकूल व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं क्योंकि हम अपने ही पर्यावरण में जीना भूल गए हैं।
कार्ल सेगन के ये शब्द वर्तमान विज्ञान और तकनीकी को बयां करते हैं- “We live in a society exquisitely dependent on Science and Technology, in which hardly anyone knows anything about Science and Technology.” अर्थात् हम जिस वैज्ञानिक और तकनीकी के युग में जीने की बात करते हैं, हम उस विज्ञान और तकनीक से वास्तविक रूप में सर्वथा अपरिचित ही हैं।
वयं स्याम पतयो रयीणाम्
भारतीय सनातन दृष्टि निश्चित रूप से वैज्ञानिक, तार्किक और व्यावहारिक पक्षों की संतुलित और सुदीर्घकालीन एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसने स्वयं के साथ दूसरे का विचार किया। जब वेद “मनुर्भव” की बात करते हैं तो वे एक ज़िम्मेदार मानव के दायित्वों और अधिकारों की एक निश्चित व्याख्या करते हैं। “वयं स्याम पतयो रयीणाम्” यह वेदमन्त्र एक दरिद्र समाज की नहीं अपितु सर्वविध सुविधाओं, ऐश्वर्यों से सुसम्पन्न समाज की स्थापना करता है। बस मूल बात इतनी ही है कि भारतीय प्राचीन ऋषि यह व्यवस्था केवल स्वयं के लिए नहीं अपितु वर्तमान और भविष्य की सभी पीढ़ियों के लिए चाहते थे।
हम स्वार्थ में अंधे हैं और परमार्थ की झूठी बात करते हैं। हम सबकी बात करते हैं लेकिन सब-कुछ केवल खुद के लिए ही चाहते हैं। सच्चाई को खोजने के लिए निकलते हैं लेकिन सच्चाई से सामना होने पर उसे नज़र अंदाज़ करते हैं। अपने को विज्ञान के युग का मानते हैं लेकिन विज्ञान को सही अर्थों में समझना नहीं चाहते हैं। दूसरे ग्रहों पर जीवन तलाशते हैं और अपने ही ग्रह पर जीवन को भूल जाते हैं। क्या यही है हमारी वैज्ञानिक, तार्किक और विकसित होने की राह?
सनातन की ऋषि परम्परा को जानें, क्योंकि वही हमें सनातन बना सकती है, सुदीर्घकाल तक अपने अस्तित्व को कायम रखने में पथप्रदर्शक की भूमिका निभा सकती है; अन्यथा जो उत्पन्न हुआ है उसका विनाश तो होना ही है… समय की प्रतीक्षा ही करनी है तो जो कर रहे हैं करते रहें… लेकिन आने वाली पीढ़ियों को कुछ बेहतर देकर जाना है तो ज़रूर भारतीय सनातन दृष्टि के वैज्ञानिक, तार्किक चिन्तन को अपने जीवन का आधार बनाएँ…. इति अलम्….।
– डॉ. आशुतोष पारीक की लेखनी से