“यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः। स सर्वोSभिहितो वेदे, सर्वज्ञानमयो हि सः।।”
– मनुस्मृति – महर्षि मनु 2.7
अखिल ज्ञान का मूल
वेदों को अखिल ज्ञान का मूल बताते हुए महर्षि मनु इन्हें समस्त ज्ञान का आगार कहते हैं और बड़ी ही सहजता, तार्किकता और दृढता के साथ वेदोक्त कार्यों को धर्म और इन वेदों में निषिद्ध किए गए कार्यों को अधर्म कहते हैं। विडम्बना है कि अपने आपको वैज्ञानिक युग के नाम से कहलाने में गौरव का अनुभव करता वर्तमान युग इसी सहजता, तार्किकता और सुदृढता को स्वीकार करने में संकोच करता है। वेदों के वैज्ञानिक ज्ञान पर संदेह करता है और यही कारण है कि अपने द्वारा निर्मित आधुनिक विज्ञान के नियमों को बार-बार बदलने पर मजबूर होता है।
पञ्च महाभूत हों या प्राणिजगत् के संरक्षण का पक्ष, मानवीय अध्यात्म हो या भौतिक विकास की अभिलाषा, पर्यावरण का संरक्षण हो या भूमि व कृषि में निहित खाद्य या खनिज तत्त्वों की प्राप्ति की चाह, जीवन जीने की कला हो या उसे त्यागने का भाव, स्वयं को नीरोगी रखने का विज्ञान हो या विश्व को नीरोग रखने की कामना, क्या हम इन कसौटियों पर खरे उतर पा रहे हैं?
वास्तविकता यही है कि हम अपने को विकसित करने की ओर जैसे-जैसे अग्रसर हो रहे हैं, वैसे-वैसे इस पृथ्वी पर जीवन के बने रहने की सम्भावना भी न्यून होती जा रही है और यदि ऐसा ही रहा तो कहीं ऐसा न हो कि दूसरे ग्रहों पर जीवन तलाशना हमारी उपलब्धि नहीं, अपितु मजबूरी बन जाए। पृथ्वी के रहस्य तो मानव की बुद्धि की परख और विकास के केन्द्र बिन्दु हैं। इन रहस्यों को जानने का प्रयास अवश्य करना चाहिए किन्तु इन प्रयासों की गति इस पृथ्वी और इसके जीवन के लिए ख़तरा बनने लगे तो हमें रुककर, थोड़ा पीछे मुड़कर, कुछ और सतर्क व सजग होकर अपने ही इतिहास को जानने का प्रयास कर ही लेना चाहिए।
माता भूमि:, पुत्रोSहं पृथिव्या:
लाखों वर्षों से मानवी संस्कृति इस पृथ्वी पर है। प्रकृति की सन्तान बनकर प्रकृति से सब कुछ पाया। प्रकृति ने भी “माता भूमि:, पुत्रोSहं पृथिव्या:” (अथर्ववेद 12.1.12) अपने पुत्र-पुत्री के समान हमारा संरक्षण, संवर्धन और पोषण किया। अन्न की समस्या के निवारण के लिए कृषि का विकास किया लेकिन भूमि को हानि नहीं पहुँचाई, जल को देव कह कर उसे प्रदूषित होने से बचाया, तकनीकी का यथावश्यक विकास व विस्तार किया लेकिन पर्यावरण को सुरिक्षत रखा। यही है आर्ष अर्थात् ऋषि-मुनियों द्वारा बताया गया जीवन-दर्शन।
हमें आश्चर्य क्यों नहीं होता पिछले दो-तीन शतकों में हमारी जनसंख्या, हमारा विज्ञान, हमारी तकनीकी और हमारा अहंकार इस धरा के लिए नासूर बन गए हैं। “जल है तो कल है”, “पर्यावरण का हनन, मानव का मरण”, “Heal the earth, heal our future”, “Reduce, Reuse, Recycle”, “धरती की रक्षा, जीवन की सुरक्षा” जैसे नारों की ज़रूरत इस दुनिया को पिछले कुछ दशकों में ही क्यों पड़ी। ज़रा-सा कुछ शतक पीछे मुड़कर देखें, इस अंधी दौड़ ने हमें कहाँ पहुँचा दिया है…?
सच तो यह है कि हम केवल चिन्तित दिखना चाहते हैं, होना नहीं। हम सजग हैं अपनी स्वार्थपूर्ति में, संलग्न हैं अर्थपूर्ति में और निरत हैं उदरपूर्ति में। संसार एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जब महामारी भी हथियार बन गई है। मनुष्यता और आने वाली पीढ़ी की चिन्ता किसी को नहीं। एक अमरीकी व्यवसायी सारनॉफ कहते हैं कि मनुष्य अभी भी इस दुनिया का सबसे बड़ा चमत्कार है और इस धरती की सबसे बड़ी समस्या भी। लेकिन इस समस्या का कोई एक कारण यदि है तो वह है जो कुछ पूर्व में जाना, उसे भुला देना। इसलिए “वेदों की ओर लौटो” यह ध्येय वाक्य महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
प्रयास करें कि जब हम आए थे, उसकी तुलना में पृथ्वी को एक बेहतर स्थान के रूप में छोड़कर जाएँ। हम सब जानते हैं कि जानवरों की अनेक प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही हैं लेकिन यदि हम अब भी नहीं संभले तो इन लुप्त होती प्रजातियों की सूची में एक नाम और जुड़ जाएगा- “मानव”। अतः आइए, हम सब दृढ संकल्प के साथ विश्व को श्रेष्ठ विचार के साथ सुरक्षित और संरक्षित स्थान बनाएँ… “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”… इति अलम्…।
– डॉ. आशुतोष पारीक की लेखनी से