“भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे, संस्कृतं संस्कृतिस्तथा।।”
प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान की गौरवमयी परंपरा समस्त जगत् को आलोकित करने वाली है। संस्कृत भाषा में ज्ञान-विज्ञान की महती शृंखला है जो वर्तमान वैज्ञानिक जगत् के लिए कौतूहल का विषय ही है। आज जहाँ एक ओर आधुनिक विज्ञान समुन्नत अवस्थिति में दिखाई दे रहा है, वहीं दूसरी ओर इसके दोष एवं नकारात्मक प्रभाव भी दिखाई दे रहे हैं। विज्ञान की प्रगति हर युग की आवश्यकता है किन्तु इसमें दूरदर्शिता और मानव कल्याण का भाव सर्वोपरि होना चाहिए। स्वदेशी विज्ञान आन्दोलन के माध्यम से आधुनिक विज्ञान को प्राचीन भारतीय ज्ञान वैभव से जोड़ने का अनवरत प्रयास किया जा रहा है।
इन्हीं बिन्दुओं को समाहित करते हुए संस्कृत, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के अनुपम संगम को आप सभी पाठकों के समक्ष रखने का एक प्रयास है यह स्तम्भ। आचार्य यास्क निरुक्त में कहते हैं – “न ह्येषु प्रत्यक्षमस्ति अनृषेरतपसो वा” (निरुक्त 13.12) अर्थात् जो ऋषि या तपस्वी नहीं है, वह मन्त्रों के यथार्थ ज्ञान को नहीं जान सकता
अतः जिस प्रकार पूर्व को जानने के लिए पूर्व की ओर ही गमन करना होता है, उसी प्रकार आर्षप्रणीत सिद्धान्तों व सूत्रों को समझने के लिए उन्हीं के अनुरूप चिन्तन-मनन के लिए अग्रसर होना होगा, तो आइए, मेरे साथ कुछ प्रयत्न करें जो हमें ऋषियों के समीप पूर्ण मनोयोग के साथ स्थित होने में समर्थ बना सके….
इस भाग में कुछ बातें पर्यावरण के बारे में-
आर्षपरम्परा में जीवन और प्रकृति का एक सहज और सरल स्वरूप विकसित किया गया था। अथर्ववेद में पर्यावरण के तीन संघटक तत्त्वों की चर्चा की गई- जल, वायु और औषधियाँ।
त्रीणि छन्दांसि कवयो वि येतिरे, पुरुरूपं दर्शतं विश्वचक्षणम्।
आपो वाता ओषधय:, तान्येस्मिन् भुवन अर्पितानि।। अथर्ववेद 18.1.1
ये तीनों ही तत्त्व भूमि को आवृत्त किए हुए रहते हैं और प्राणिजगत् को प्रसन्नता देते हैं अतः इन्हें “छन्दस्” (छन्द) कहा गया है। इनके अनेक रूप और नाम होने के कारण इन्हें “पुरुरूपम्” कहा गया है। लोक में जीवन रक्षा के लिए इन तीनों ही तत्त्वों की उपादेयता सर्वाधिक है। वर्तमान विज्ञान जल और वायु को तो पर्यावरण में सम्मिलित करता है किन्तु वनस्पति/औषधियों को नहीं।
पर्यावरण को परिधि शब्द से परिभाषित करते हुए अथर्ववेद में कहा गया है-
“सर्वो वै तत्र जीवति गौरश्व: पुरुषः पशु:।
यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम्?।।” अथर्ववेद 8.2.25
समस्त प्राणियों के सुखमय जीवन हेतु पूर्ण शुद्ध (ब्रह्म) पर्यावरण (परिधि) आवश्यक है।
पृथ्वी के संरक्षण के भाव स्वयं ही प्रत्येक हृदय में स्थापित हो जाएँ अतः “माता भूमि: पुत्रोsहं पृथिव्या:” (अथर्ववेद 12.1.12) कहकर पृथ्वी को माँ और स्वयं को उसकी सन्तान के रूप उद्घोषित किया।
अथर्ववेद का ही एक मन्त्र है जो वर्तमान युग की पृथ्वी की पीड़ा को शब्दशः अभिव्यक्त करता है-
“यत्ते भूमे विखनामि, क्षिप्रं तदपि रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वरि, मा ते हृदयमर्पिपम्।। अथर्ववेद 12.1.35
हम पृथ्वी के जिस भाग को खोदते हैं, उसे शीघ्र फिर भरें। किसी भी अवस्था में पृथ्वी के हृदय और मर्मस्थलों को क्षति न पहुँचाएँ। किन्तु आज कौन है जो इन सिद्धान्तों का पालन कर रहा है। स्वार्थ की अंधी दौड़ में हर किसी को ख़ज़ाना चाहिए, चाहे उसकी कीमत सम्पूर्ण पर्यावरण के नाश से भी चुकानी पड़ जाए….
आज हमारे ही अपराधों के कारण प्रकृति विकृत हो चुकी है, शिव का रौद्र रूप अकाल, बाढ़, महामारी, भूकम्प, सुनामी जैसे विकराल रूपों में प्राणियों के संहार के लिए आतुर बना हुआ है। जीवन जीने के लिए किए जा रहे सभी प्रयत्न नाकाफ़ी प्रतीत हो रहे हैं। आर्षविचारों के त्याग ने ही वर्तमान त्रासदियों को जन्म दिया है, यह बात आज का वैज्ञानिक मन ही मन स्वीकार कर चुका है।
फिर भी बहुत कुछ शेष है अभी प्रकृति के पास…
हम भले ही पृथ्वी की अच्छी सन्तान नहीं बन पाए हैं लेकिन उसका मातृत्व अभी भी हमें बचाए रखना चाहता है…
बस देखना यही है कि कब तक….?
– डॉ आशुतोष पारीक की लेखनी से…
http://swadeshisciences.org/svp-vol-1-2-july-december-2020-%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%95%e0%a5%83%e0%a4%a4-%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%95%e0%a5%83%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%94%e0%a4%b0/: प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान की गौरवमयी परम्परा
साधुवाद बंधु,
अतिसुन्दर सारगर्भित आलेख।
पर्यावरण से जुड़े अन्य आलेख यदि हों तो कृपया उनके भी लिंक पोस्ट करें।
Dr. Artee Dubey ji,
आपका आभार एवं धन्यवाद…
शीघ्र ही पर्यावरण से जुड़े विविध आलेख भी इस Website पर upload किए जाने हैं… आशा है यहाँ के लेख आपको पसन्द आ रहे होंगे…
धन्यवाद
आशुतोष
Very impressive & substantial article.
Very comprehensive article.
Thank you
बहुत ज्ञानवर्धक आलेख । अपनी सभ्यता और संस्कृति की खोई हुई समृद्धि के प्रति चिंता स्पष्ट दिखाई दे रही है।
भविष्य में भी आपके इस प्रकार के लेख की प्रतीक्षा रहेगी। धन्यवाद।
आपका हार्दिक आभार एवं धन्यवाद…