संस्कृत पत्रकारिता (Sanskrit Journalism)
संस्कृत पत्रकारिता (Sanskrit Journalism) – भाषा की दृष्टि से विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक और गौरवमय इतिहास की प्रेरिका एवं साक्षी रही संस्कृत भाषा वर्तमान युग में निश्चय ही पत्रकारिता एवं मीडिया को प्रभावित करने की असीम सम्भावनाओं से परिपूर्ण है। आज जबकि भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं प्रिंट मीडिया बहुत तेज़ी से पैर पसार रहा है, उसमें संस्कृत-पत्रकारिता का भी एक विशिष्ट स्थान है। संस्कृत पत्रकारिता के विषय में सुधी पाठकों को यह जानना चाहिए कि भारत के प्रायः सभी राज्यों और कुछ विदेशों में भी संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है।
संस्कृत पत्रकारिता का उदय
जिस प्रकार हिन्दी-पत्रकारिता के इतिहास में हिन्दी के प्रथम पत्र “उदन्त मार्तण्ड” (सम्पादक – पं. जुगलकिशोर शुक्ल 1826 ई.) का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। उसी प्रकार संस्कृत-पत्रकारिता के इतिहास में प्रथम पत्र के रूप में “काशीविद्यासुधानिधिः” (1 जून 1866 को काशी से प्रथम बार प्रकाशित) का नाम अमर रहेगा। इस पत्रिका को ही “पण्डित-पत्रिका” के नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत पत्रकारिता के 150 वें वर्ष अर्थात् 2016-17 में “भारतीय संस्कृत-पत्रकार संघ” ने राष्ट्रीय स्तर पर अनेक कार्यशालाओं और संगोष्ठियों का आयोजन किया था। निश्चय ही संस्कृत-पत्रकारिता को व्यावहारिक रूप में राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए संस्कृतप्रेमी दिन-रात प्रयत्नशील हैं।
लोकमान्य गंगाधर तिलक के मराठी में प्रकाशित ‘केसरी’ पत्र का पत्रकारिता में विशेष महत्त्व है। 4 जनवरी 1881 को पुणे से साप्ताहिक ‘केसरी’ का प्रकाशन प्रति मंगलवार को प्रारम्भ हुआ। इस पत्र से जुड़े विष्णु शास्त्री चिपणूलकर, बाल गंगाधर तिलक, वामन शिवराम आप्टे, गणेश कृष्ण गर्दे, गोपाल गणेश आगरकर और महादेव वल्लभ नामजोशी आदि प्रायः सभी संस्कृत के महत्त्व को जानने वाले और संस्कृत के पक्षधर थे। इसी कारण पत्र के उद्देश्य और कार्य को द्योतित करता पण्डितराज जगन्नाथ विरचित “भामिनीविलास” का यह श्लोक केसरी के मुखपृष्ठ की शोभा बना-
“स्थितिं नो रे दध्याः, क्षणमपि मदान्धेक्षण-सखे!,
गज-श्रेणीनाथ! त्वमिह जटिलायां वनभुवि।
असौ कुम्भिभ्रान्त्या खरनखरविद्रावितमहागुरु-
ग्रावग्रामः स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः।।”
“भामिनीविलास” – पण्डितराज जगन्नाथ
अर्थ- हे गजेन्द्र! इस जटिल वनभूमि में तुम पल भर के लिए भी मत रुको क्योंकि यहाँ पर पर्वत-गुफा में वह केसरी (हरिपति) सो रहा है, जिसने हाथी के माथे जैसी दिखने की भ्रान्ति में बड़ी-बड़ी शिलाओं को भी अपने कठोर नाखूनों से चूर-चूर (विद्रावित) कर दिया है।
अतः कहा जा सकता है कि तत्कालीन भाषाई पत्रकारिता के लेखक, सम्पादक, प्रकाशक अधिकांशतः संस्कृत के जानकार या विशेषज्ञ अथवा संस्कृत के प्रति निष्ठावान् थे। एक शोध के अनुसार वर्तमान में संस्कृत पत्रपत्रिकाओं की संख्या 120 से 130 के बीच कही जाती है।
संस्कृत में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1. शोधपत्रिकाएँ जिनमें शोधालेखों, प्राचीन ग्रन्थों और पाण्डुलिपियों को ही प्रकाशित किया जाता है।
2. सामान्य दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक पत्रिकाएँ जिनमें विविध सामाजिक विषयों से सम्बद्ध सामग्री का प्रकाशन किया जाता है।
संस्कृत-पत्रकारिता में आज बहुत परिवर्तन हो रहा है। अतः यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि संस्कृत-पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व संस्कृतपत्रकारिता
ईसवी सन् 1832 में बंगाल की एशियाटिक सोसायटी ने अंग्रेज़ी और संस्कृत में एक द्विभाषी शोधपत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया था, जिसमें संस्कृत साहित्य की गवेषणाओं और पुरातन सामग्री से परिपूर्ण शोधालेखों को प्रकाशित किया जाता था। तत्पश्चात् 1 जून 1866 ई. को काशी स्थित गवर्नमेण्ट संस्कृत कॉलेज ने “काशीविद्यासुधानिधिः” नामक मासिक पत्र का प्रकाशन किया। काशी से ही सन् 1837 ई. में “क्रमनन्दिनी” का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। विशुद्ध संस्कृत की ये दोनों पत्रिकाएँ प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का प्रकाsशन करती थीं। इनमें विशुद्ध समाचारपत्रों के लक्षण नहीं थे। अप्रैल 1872 ई. में लाहौर से “विद्योदयः” विशुद्ध रूप से समाचार-पत्र के रूप में प्रकाशित होने लगा। इसके सम्पादक हृषीकेश भट्टाचार्य ने संस्कृत पत्रकारिता के लिए एक सुदृढ आधार प्रदान किया।
बिहार के प्रथम संस्कृतपत्र के रूप में 1878 ई. में पटना से “विद्यार्थी” नामक मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। बाद में इसका प्रकाशन पाक्षिक रूप से उदयपुर और श्रीनाथद्वारा से होने लगा। आगे चलकर यह हिन्दी की “हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका” और “मोहनचन्द्रिका” पत्रिकाओं में मिलकर प्रकाशित होने लगी। यह संस्कृतभाषा का पहला पाक्षिक पत्र था जिसके सम्पादक पं. दामोदर शास्त्री थे। 1880 ई. में पटना से ही मासिक पत्र “धर्मनीतितत्त्वम्” का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ।
17 अक्टूबर 1884 ई. को केरल के कुट्टूर से “विज्ञानचिन्तामणिः” नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। नीलकान्त शास्त्री के सम्पादकत्व में यह पत्रिका संस्कृत पत्रकारिता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साबित हुई। अपनी प्रसिद्धि के कारण कालान्तर में यह पाक्षिक उसके बाद दशाह्निक और अन्ततः साप्ताहिक हुई।
संस्कृत भाषा की समृद्धि और विकास के लिए सन् 1887 ई. में पं. अम्बिकादत्त व्यास द्वारा स्थापित ‘बिहार संस्कृत संजीवन समाज’ (प्रथम बैठक 5 अप्रेल 1887 जिसकी अध्यक्षता पॉप जॉन बेन्जिन्, सचिव- पं. अम्बिकादत्त व्यास) द्वारा 1940 ई. में त्रैमासिक पत्रिका के रूप में “संस्कृतसंजीवनम्” का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया था। 19वीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में अनेक संस्कृत पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ था। अप्पाशास्त्री राशिवडेकर के सम्पादकत्व में पहले कोलकाता और बाद में कोल्हापुर से “संस्कृतचन्द्रिका” प्रकाशित हुई। संस्कृतभाषा के पोषण एवं संवर्धनार्थ, संस्कृतभाषाविदों में उदार दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसारार्थ “सहृदया” नामक संस्कृत पत्रिका का विशिष्ट महत्त्व था।
20वीं शताब्दी का आरम्भिक युग संस्कृत-पत्रकारिता के क्षेत्र में आन्दोलनात्मक प्रतिरूप में दिखाई दिया। देश के विविध स्थानों से संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, जिनमें 1909 ई. में “भारतधर्मः”, 1913 ई. में “विद्या”, 1915 ई. में “शारदा”, 1920 ई. में “संस्कृतसाकेतम्” एवं 1918 ई. में संस्कृत संजीवन समाज द्वारा पटना से पाक्षिक “मित्रम्” आदि प्रमुख हैं।
1923 ई. में “आनन्दपत्रिका”, 1924 ई. में “शारदा”, 1931 ई. में “श्रीः”, 1934 ई. में “उषा”, 1936 ई. में “संस्कृतग्रन्थमाला”, 1938 ई. में “संस्कृतरत्नाकरः” (अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन का मासिक मुखपत्र, कानपुर से प्रकाशित, सारस्वत सम्पादक- केदारनाथ शर्मा) 1943 ई. में ’’गंगानाथ झा रिसर्च जर्नल’’ (राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका) का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ।
– डॉ. आशुतोष पारीक संस्कृतायनम्