BATESHARNATH explained by Ashutosh Pareek
BATESHARNATH explained by Ashutosh Pareek
पुस्तक – वटेश्वरनाथः
मूल लेखक – नागार्जुन (हिन्दी – बटेसरनाथ)
संस्कृतानुवादक – डाॅ. हृषीकेश झा
प्रकाशक – प्रत्नकीर्ति प्राच्य शोध संस्थान, वाराणसी
प्रकाशन वर्ष – 2021
पृष्ठसंख्या – 8 +126

यदि यह कहना सच है कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, तो यह कहना उसी सच को रेखांकित करना होगा कि नागार्जुन के उपन्यासों में इस विशाल देश की आत्मा साकार हो उठती है। प्रख्यात कवि और कथाकार नागार्जुन का एक सशक्त मूलतः हिन्दी में लिखा आंचलिक उपन्यास है ’’बाबा बटेसरनाथ’’ जिसका मूलतः प्रकाशन 1954 में हुआ। इसका संस्कृत अनुवाद ’’वटेश्वरनाथः’’ इस शीर्षक के साथ डाॅ. हृषीकेश झा द्वारा किया गया है। इसे प्रत्नकीर्ति प्राच्य शोध संस्थान, वाराणसी ने वर्ष 2021 में प्रकाशित किया है।

नागार्जुन प्रेमचन्द की परम्परा के उपन्यासकार हैं। नागार्जुन के प्रसिद्ध उपन्यासों में रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेरसरनाथ, दुःखमोचन, वरुणा के बेटे, कुंभीपाक, उग्रतारा, हीरक जयंती आदि प्रमुख हैं। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में शुमार ’बाबा बटेसरनाथ’ नामक कृति मिथिला के ग्रामीण जीवन के उत्कट यथार्थ का प्रखर आस्वादन कराती है। नागार्जुन को अगर देख पाएँ तो उनकी प्रगतिशील रचनाएँ समाज के यथार्थस्वरूप का चित्रण करते हुए उसके लिए समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। बलचनमा और बाबा बटेसरनाथ ऐसे ही उपन्यास हैं। नागार्जुन अपने उपन्यासों में तत्कालीन राजनीतिक समस्या, दरिद्रता, अत्याचार, शोषण, राजनीतिक दंगों, जीवन के कड़वे सच और समाज की यथार्थ मानसिकता के साथ करणीय और अकरणीय का गहराई से चिन्तन प्रस्तुत करते हैं।

संस्कृत पाठकों के लिए यह नितान्त सौभाग्य का विषय है कि नागार्जुन जैसे उपन्यासकार को संस्कृत में पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है और इस अनुपम प्रयास के लिए इनके अनुवादक डाॅ. हृषीकेश झा का समस्त पाठकसमुदाय आभारी रहेगा। सच कहें तो नागार्जुन के उपन्यासों के अनुवाद के लिए डाॅ. हृषीकेश झा पूर्णतः उपयुक्त हैं क्योंकि दोनों का ही सम्बन्ध मिथिला से है, दोनों मिथिला के ग्रामीण आंचलिक जीवन से गहराई से जुड़े रहे हैं। अतः लेखक के विचारों को उसी भाव के साथ प्रस्तुत करने का यह प्रयास श्लाघनीय है।

नागार्जुन का यह उपन्यास भारत की गाँवों में बसती आत्मा का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास गामीण जनता पर होने वाले क्रूर, निर्दयी अत्याचारों की सच्ची और उतनी ही कड़वी दास्तान है। गाँवों में धर्म, परम्परा, देवी-देवताओं, जाति, अंधविश्वास, अन्धश्रद्धा, अशिक्षा के नाम पर होने वाली ठगी, अनैतिकता और शोषण की सच्ची तस्वीर है यह उपन्यास।

इस उपन्यास का प्रमुख पात्र है वृद्ध वटेश्वरनाथ (बाबा बटेसरनाथ)। एक मूक दर्शक के रूप में अपनी लम्बी उम्र गुज़ार चुके वृद्ध वटेश्वरनाथ को एक श्रोता मिलता है जिसका नाम है जयकृष्ण (जैकिसुन)। वटेश्वरनाथ जब अपने जीवन के बीते वर्षों को सुनाते हुए अपनी, अपने गाँव की, गाँव के निरीह प्राणियों और उन पर अत्याचार करते जंगली भेड़ियों के समान ज़मींदारों, साहूकारों और धर्माधिकारियों, रसूखदारों, उच्चपदासीनों की दुःखभरी गाथा को भी सहज ही सुनाने लगता है। इनके अलावा इस गाथा में अनेक पात्रों का आगमन और प्रस्थान होता रहता है, वर्षों की दास्तान एक अलबम के समान खुलते चित्रों की तरह आँखों के सामने आने लगती है।

उपन्यास के प्रमुख पात्रों में वृद्ध वटेश्वरनाथ (बाबा बटेसरनाथ), जयकृष्ण (जैकिसुन), जयनारायण (जैनरायन), टुनाइ पाठक, टुनाइ का दादा छीतन पाठक, नैयायिक प्रवर चन्द्रमणि मिश्र ’तर्क पंचानन’, राज बहादुर गौरीदत्त सिंह, राजबहादुर रमादत्तसिंह, जीवननाथ का दादा शत्रुमर्दन राय, मुंशी कृष्णलाल दास, मुंशी तुरन्तलाल दास जैसे अनेक किरदार नज़र आते हैं। इन पात्रों में विविधता, सहजता, उपन्यास में इनकी प्रासंगिकता इतनी गूँथी हुई है कि पाठक को यह आपबीती लगने लगती है।

नागार्जुन के उपन्यास के कुछ अनूदित अंश जो इस महनीय रचना की आत्मा कहे जा सकते हैं, इसके भावसौन्दर्य की अभिव्यक्ति में सहायक होंगे। बाबा बटेसरनाथ अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं- ’’पूर्वमहं त्वां ज्ञापयामि यन्नास्ति मे मृत्योर्भयम्। किंचिन्मात्रमपि नास्ति। एतेन एतन्न जानीहि यन्मम जीवनं प्रियं नास्ति। संसारे को वा जीवो भवति यस्य कृते स्वजीवनं प्रियं न स्यात्, स्वजीवनं प्रति विरक्तिर्वा स्यात्? कदाचित् कस्यचित् सज्जनस्य मुखाच्छ्रुतम् – ’बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ ’लोकानुकम्पाय’ स्वजीवनाय जीवनं जीवनं न भवति। परोपकारार्थमेव जीवनं जीवनमिति कथ्यते। मम मृत्युर्यदि जनसाधारणस्य कृते लाभप्रदः स्यात् नास्ति जीवनप्रयोजनम्। किन्तु केचन स्वार्थिनो धूर्ताः व्यक्तिगतहानिलाभदृष्ट्या मां पश्यन्ति। अहं कदापि नैव चिन्तयिष्यामि यत् तेषां मनोरथं पूर्येत… नैव नैव। अक्षयवटोऽपि धरित्र्यामेव भवति। यावज्जना मां वांछिष्यन्ति तावदहमक्षयवटः अस्मि ’अक्षयवट’ इति धारय।’’ (पृष्ठ संख्या 7-8)

वटेश्वरनाथ का लालन-पालन और पोषण जयकृष्ण (जैकिसुन) के परदादा ने किया था। अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन करते हुए वटेश्वरनाथ रूपौली ग्रामवासियों के स्नेह से आप्लावित स्वयं को आँखों का तारा कहता है- ’’धरित्र्या रसम्, उर्वरकं, सूर्यातपं, वायुं, जलं, तव प्रपितामहस्य लालनम्, रूपौलीग्रामवासिनां स्नेहं चावाप्य द्रुततया वृद्ध्युन्मुख आसम्। सम्प्रति भित्तिरन्ध्रे अनुभूतं कष्टं स्मरन्नहं भूयो भूयो भगवन्तं शिवं प्रति धन्यवादं ज्ञापयामि। पुत्र, सम्प्रत्यहं राजकुमार इव सर्वेषां प्रियचक्षुस्तारक इवाभवम्।’’ (पृष्ठ संख्या 23)

जयकृष्ण के पास सो रहे जीवननाथ के दादा शत्रुमर्दन राय कर्ज चुकाने के लिए रायबहादुर से जब कुछ और मोहलत माँगने आया तो उसके साथ हुए क्रूर अत्याचार का कारुणिक वर्णन करते हुए वटेश्वरनाथ कहते हैं- ’’शत्रुमर्दनरायः अजिरमध्ये स्थितः कारितः। दणडधारिणश्चत्वारो युवानस्तत्र तत्परा आसन्। बाहू उपरिकृत्य बद्धौ। गजद्वयमिते अन्तरे द्वे इष्टके स्थापिते। यमदूतवत् क्रूर एको भोजपुरीयः कषां गृह्णन् समीपमागतः। अपरभागाच्चैकोऽन्यः पुरुष: आगतः यस्य हस्ते एकं पिहितमुखं मृत्तिकापात्रमासीत्। जमादारस्य संकेतमवाप्य सः शत्रुमर्दनरायस्य समीपमागतः। मृद्भाण्डस्य च मुखमपावृत्य चीटिकानां कुलायच्छत्रमेकं निसारयत्। चीटिकाच्छत्रे एका रज्जुर्बद्धा आसीत्। स रिक्तं भाण्डं भूमौ न्यास्थत्। रक्तचीटिकायुक्तमर्धशुष्काणामाम्रपत्राणां कुलायं रायमहोदयस्य शिरोभागे अस्थापयत्, उपरि रज्जुं च धृतवानवर्तत… सहस्रसंख्यकाः चिटिकाः शत्रुमर्दनरायस्य शरीरे प्रासरन्। निरुपायः सन् स रायश्च शिरोभागं कम्पयन् हस्तापत्रवापि आक्रष्टुं यत्नं कृतवान्। तावदेव तस्य पृष्ठे वारचतुष्टयं कषाघातो जातः ’’सपाक्-सपाक्।’’ जमादारश्चागर्जत्- ’’सावधानो भव, स्वकुशलमिच्छसि चेद् यथावद् यथास्थानं च तिष्ठ अन्यथा’’… अक्षिनासिकाकर्णग्रीवाललाटादिषु सर्वत्र चीटिका व्याप्ता अभूवन्। क्षणं यावत् शत्रुमर्दनरायः ’’हा हा’’ इति विलपन्नवर्तत। सहस्रसंख्यकाः चलन्यो बुभूक्षिताः पिपासिताः विषयुक्ताश्चीटिकाः विवशे जने आक्रमणं कृतवत्य आसन्। शत्रुमर्दनरायश्चिरं विकल आसीत्… किन्तु पुत्र, स वस्तुतः राजपुत्र आसीत्।………. अन्ततोऽसौ अचेतनः सन्नपतत्। यस्मिन् समये च शत्रुमर्दने एवं क्रूरत्वं प्रवर्तते स्म, तस्मिन्नेव समये भवनस्यान्तर्भागे एकस्मिन् प्रकोष्ठे राधाकृष्णयोर्युगलमूर्तिसमक्षं मधुरस्वरवानेको युवा पुराणवाचकः राजमातरं श्रीमद्भागवतस्य रासपंचाध्यायीं श्रावयन् आसीत्।’’ (पृष्ठ संख्या 33-34)

वृद्ध वटेश्वरनाथ दीर्घकाल से हो रहे परिवर्तन के साक्षी रहे। वे कहते हैं- ’’समाचारपत्राणि द्वे चत्वारि वा कलकत्तात एव प्रकाशितान्यभूवन्। तान्यपि सामान्यस्तरीयाण्येव। तेश्वपि आंग्लाधिकारिणाम्, आंग्लव्यापारिणाम्, अधिकारिणाम् राज्ञां महाराजादीनामेव वृत्तान्यवर्तन्त, अथवा सर्वकारीयविज्ञापनानि तेष्वर्तन्त। ग्रामीणानां सामान्यजनानां वृत्तानि तेषां दुःखवेदनादीनां वृत्तानि तत्र न भवन्ति स्म। सामान्यजनानां समस्यावेदनादयस्तेषामन्तरेव जीर्यमाणा अभूवन्… अद्य तु त्वं तद्दिनस्य कल्पनामेव कर्तुं समर्थः स्याः पुत्र! अद्य तु पटनात एव नवसंख्यकानि दैनिकानि पत्राणि प्रकाश्यन्ते। दूरे ग्रामीणक्षेत्रेऽपि किमपि घटते चेत्, तद्वृत्तस्य प्रसारः समग्र एव बिहारप्रदेशे जायते। समाचारपत्रप्रकाशनमात्रान्न किमपि जायत एतत्तु सत्यम्। वार्तामात्रात्कस्यापि हृदयवेदना न शाम्येदेतत्तु सत्यम्। किन्तु सत्यघटनानां प्रसारणमपि सामान्यं न भवति। (पृष्ठ संख्या 40)

बाबा वटेश्वरनाथ किसानों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं- ’’एकस्यां बीघायां विंशतिः कट्ठा भवन्ति। एवं सति प्रतिबीघाक्षेत्रं कट्ठात्रये भूमौ नीलोत्पादनार्थमेते कृषकाः बाध्या आसन्। एतत्कृते भूस्वामिद्वारा सर्वकारीयाधिकारिद्वारा वा आदेशो अदीयत। ये कृषका आदेशमिमं न अमानयन् ते बहुभिः प्रकारैः अपीड्यन्त। तव पितामहं जानमहोदयस्य श्यालः एकदा एतावतैव दोषेणाताडयद्यदयं भ्रमवशात् तस्मै प्रणामं नाकरोत्। स आपणादाच्छन्नासीत्। तस्य एकस्मिन् हस्ते तैलपात्रमासीत्। अपरस्मिन्नेको मत्स्यो लम्बमानो अवर्तत। पार्श्वे दण्ड आसीत् शिरसि चैका पोट्टलिका। इतो अश्वारूढो गौरः गच्छन् आसीत्। जाॅनमहोदयस्य श्यालः। उभौ परस्परं परिचितौ आस्ताम्। तव पितामहः किंचिच्चिन्तयन्नासीत्। प्रमादात्स प्रणामं न कृतवान्। अग्रिम एव दिने तस्य पृष्ठे दण्डप्रहारस्य वृष्टिरभूत्।… आजीवनं तव पितामहस्य पृष्ठे दण्डप्रहारस्य तानि चिह्नानि अवर्तन्त।’’ (पृष्ठ संख्या 61)

बाबा वटेश्वरनाथ वर्तमान ग्रामीणों और उनकी एकता के प्रति आश्वस्त होते हुए कहते हैं- ’’यूयं तु ग्रामस्य वातावरणं परिवर्तितवन्तः। साम्प्रतं पाठको जयनारायणो वा युष्माकं कामपि हानिं विधातुं नैव समर्थः स्यात्। न कोऽपि युष्माभिः संघर्षं विधातुं प्रभवेत्… अहमाशीर्वादं ददामि यदस्य रुपौलीग्रामस्येयमेकता सदैव प्रवर्तताम्। सुखमयजीवनस्य कृते युष्मदीया सामूहिकी प्रचेष्टा न कदापि मन्दा स्यात्, व्यक्तिगता स्वार्थभावना न कदापि इमां चेतनां मलिनां विदध्यात्।’’ (पृष्ठ संख्या 123)

अपने जीवन के समापन की घोषणा करते हुए बाबा वटेश्वरनाथ आगे कहते हैं- ’’ममास्य देहस्य दश पंचदश वा दिनान्यवशिष्यन्ते । तदनन्तरमयं वटवृक्षो निश्प्राणो द्रक्ष्यते। अस्य सर्वाण्येव पत्राणि शुष्काणि भविष्यन्ति। त्वक् शुष्का भविष्यति, काष्ठमपि शुष्कं भविष्यति…. गतवर्षाकाले अस्यैव वृक्षस्यैकं बीजं पादरूपेणोद्भूतमस्ति हाजीकरीमबक्सस्योद्याने एकस्य पिप्पलवृक्षस्य स्कन्धप्रदेशे। मम फलभक्षक एकः काकः अस्य कृते धन्यवादार्हः। स एव तत्र गत्वा विष्ठामुदसृजत्। सः पादपः सम्प्रति प्रादेशमात्रो जातोऽस्ति। युष्माभिर्मर्मस्थाने स एव पादपो रोपणीयः। दशस्वेव वर्षेषु अत्र पुनरेको विस्तृतच्छायायुक्तश्च वटवृक्षो भवेदेव। अग्रे स एव युष्मत्सुहृद् भवेत्, अवगतो वा वत्स!’’

सम्पूर्ण उपन्यास वेदना, दमन, शोषण, भूखमरी से आप्लावित होने के बावज़ूद एक रोशनी की राह दिखाता है। ’’वटेश्वरनाथः’’ को एक पाठक स्वयं में अनुभूत कर सके, इसकी अपार शक्ति इस उपन्यास में है। तत्कालीन समाज की त्रासदी को समझ पाना वर्तमान पीढ़ी के लिए असम्भव-सा ही है। इस बात को उपन्यासकार ने भी स्पष्ट रूप से वृद्ध वटेश्वरनाथ के मुख से कहलवाया है। यह उपन्यास संस्कृत भाषा के पाठकों के लिए उस युग को जानने, समझने और उन्हें अनुभव करने का सुअवसर प्रदान करता है।

भाषा और शब्दप्रयोग की यदि बात कही जाए तो उपन्यासकार ने मिथिला के स्थानीय ग्रामीण शब्दों का बेजोड़ प्रयोग किया है। मिथिला की धरती पर ग्रामीण जीवन की कड़वी दास्तान को स्थानीयता का अमली जामा पहनाया गया है और इसीलिए इस तरह के उपन्यासों का अन्य भाषा में अनुवाद दुरुह और साहसिक कार्य हो जाता है। जिन भी पाठकों ने इस उपन्यास के मूल हिन्दी स्वरूप को पढ़ा होगा, उन्होंने यह निश्चित रूप से पाया होगा कि स्थानीय बोलियाँ और भाषाएँ समाज के तल से पैदा होती हैं। वे उस अन्तिम छोर के भावों को अभिव्यक्त करती हैं जिसे सभ्य समाज की भाषाएँ परहेज़ करना सिखाती हैं। और यही कारण है कि इसके स्थानीय ग्रामीण शब्दों ने ज़मींदारों की क्रूरता, दुराचार, घमण्डी स्वभाव, अपमानित करने की लालसा और स्वयं को ईश्वर मानने के दम्भ को जितने पुरज़ोर तरीके से अभिव्यक्त किया है उतना अन्य भाषा अनुवाद में ला पाना कुछ कठिन-सा हो जाता है।

संस्कृत भाषा के माध्यम से यद्यपि भावात्मक सटीक विश्लेषण करने का अप्रतिम प्रयास किया गया है तथापि इन दुर्भावों को प्रदर्शित करने में संस्कृत कुछ दयालु-सी प्रतीत होती है। और यही कारण है कि संस्कृतानुवाद उपन्यास की कथा को तो पूरी तरह से प्रदर्शित करता है किन्तु उसके दमनकारी क्रूर व्यक्तित्व को अंशतः ही। इस अनुवाद में व्यक्तियों, स्थानों के नामों के साथ-साथ अनेक भावों को भी तत्सम शब्दों के द्वारा संस्कृत स्वरूप प्रदान किया है जैसे जैकिसुन – जयकृष्ण, रुपउली – रूपौली, बाबा बटेसरनाथ – वृद्ध (बाबा) वटेश्वरनाथ, जैनरायन – जयनारायण, तीन कट्ठा – त्रिकष्ठिका आदि।

मूल हिन्दी और संस्कृतानुवाद को यदि साथ-साथ पढ़ा जाए तो प्रायः भावात्मक दृष्टिकोण से अक्षरशः अनुवाद करने का सार्थक प्रयास किया गया है जिसके लिए डाॅ. हृषीकेश झा साधुवाद के पात्र हैं। अनुवादक के रूप में उनका शब्दकौशल एवं उपन्यास के मूल नागार्जुन के प्रति अनुराग स्पष्टतः झलकता है। नागार्जुन स्वयं भी संस्कृत भाषा मर्मज्ञ थे। उन्होंने ’धर्मलोकशतकम्’ नामक संस्कृत काव्य भी लिखा था। अतः संस्कृत जगत् के लिए ऐसे संस्कृत उपासक की कृतियों का संस्कृतानुवाद आवश्यक रूप से संस्कृतभाषाविदों का दायित्व बन जाता है। पुस्तक में कुछ स्थानों पर टंकण सम्बन्धी अशुद्धियाँ अवश्य हैं जिसे आगामी संस्करण में सुधारा जा सकता है।

संस्कृतानुवाद की भूमिका में अनुवादक डाॅ. झा ने अनुवाद की दुष्करता का उल्लेख हुए लिखा है- ’’मूलभाषायां कोऽपि शब्दः येषु अर्थेषु प्रयुज्यते अनुवादभाषायां तत्तदर्थबोधका एव शब्दा सुदुर्लभा इति सुविदितमनुभवगम्यं च। एवमेव व्यंग्यादिविषयेऽपि। समाजविशेषस्य परिवेशविषयचित्रणक्रमेऽपि एतत्काठिन्यमनुभूयते।’’ (भूमिका पृष्ठ सं. 6)

एक अनुवादक जहाँ मूललेखक के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए अपने प्रयासों की सार्थकता हेतु संघरष करता है वहीं एक समीक्षक उन दोनों (मूल और अनुवाद) की गम्भीरता, सहजता, मौलिकता, सहभाव और सटीकता को जानने के लिए प्रयत्नशील होता है।


निश्चय ही एक समीक्षक के रूप में इस पुस्तक को जानने का जो अवसर है, वह एक पाठक के रूप में ’’वटेश्वरनाथः’’ के साथ यात्रा करने के आनन्द से बहुत कम है। एक पाठक के रूप में इस उपन्यास के साथ जुड़ते हुए बाबा वटेश्वरनाथ के मन के अप्रतिम दुःख के साथ मन दुःखी होता है, तो जयकृष्ण के साथ उस दुःख का सहभागी भी होता है और उपन्यास के अवसान के साथ-साथ जीवन के प्रति मोह का त्याग करने वाले एक संन्यासी के समान जीवन के पथ पर आगे बढ़ जाने को प्रेरित हो जाता है। अतः मेरा विश्वास है कि संस्कृतानुरागियों के लिए नागार्जुन जैसे उपन्यासकार की इन अनुपम कृतियों का रसास्वादन का यह शुभावसर डाॅ. हृषीकेश झा एवं इस पुस्तक के प्रकाशक प्रत्नकीर्ति प्राच्य शोध संस्थान, वाराणसी के संयुक्त प्रयासों से सम्भव हुआ है। इसके बारे में जानने और उस यात्रा का हिस्सा बनने का सौभाग्य प्रत्येक संस्कृतानुरागी के लिए नूतन अनुभव का द्वार उद्घाटित करने वाला होगा।

संस्कृतानुवाद के इस प्रकार के अधिक से अधिक प्रयासों की वर्तमान युग को आवष्यकता है।

शुभास्ते पन्थानः सन्तु…. आपके पथ शुभ हों… इत्यलम्…

– डॉ. आशुतोष पारीक संस्कृतायनम्

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