पुस्तक – बालचन्द्रः
मूललेखक – नागार्जुन (हिन्दी – बलचनमा)
संस्कृतानुवादक – डॉ. हृशीकेष झा
प्रकाशक – संस्कृतभारती, नवदेहली
प्रकाशन वर्ष – 2021 पृष्ठ संख्या – 6+132
प्रख्यात कवि और कथाकार नागार्जुन का एक सशक्त मूलतः हिन्दी में लिखा आंचलिक उपन्यास है ’’बलचनमा’’, जिसका संस्कृत अनुवाद ’’बालचन्द्रः’’ इस शीर्षक के साथ डॉ. हृषीकेश झा द्वारा किया गया है। इसे संस्कृतभारती, नवदेहली ने वर्ष 2021 में प्रकाशित किया है।
पुस्तक की समीक्षा के सन्दर्भ में सर्वप्रथम नागार्जुन और उनकी लेखनशैली से परिचित होना आवश्यक है। नागार्जुन प्रेमचन्द की परम्परा के उपन्यासकार हैं। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में शुमार यह कृति मिथिला के ग्रामीण जीवन के उत्कट यथार्थ का प्रखर आस्वादन कराती है। यह आत्मकथा ज़मींदारों के शोषण और दमन के शिकार निम्नवर्ग के एक ग्रामीण की आपबीती को पाठकों के हृदयों तक पहुँचाती है।
’’बलचनमा’’ जिसे संस्कृतानुवाद में ’’बालचन्द्रः’’ कहकर सम्बोधित किया गया है, वास्तव में अनपढ़, अधिकारहीन, वंचित, शोषित और निरीह-सा प्राणी है, जिसे स्वयं के प्राणों पर भी विश्वास करने में एक अरसा लग गया। अपने परिवार की दयनीय स्थिति के सामने झुकता ही गया और न जाने कब उसने इसी मृतवत् जीवन को ही अपनी नियति मान लिया। कहा जाता है कि भगवान् हर एक को उसके जीवन में एक ऐसा पल ज़रूर देता है जब वह अपने वास्तविक ध्येय को जान सके। ’’बलचनमा’’ ने उस पल की महत्ता को समझा और धीरे-धीरे ही सही किन्तु उसके बाद अपने जैसे न जाने कितनों के जीवन को बचाने के लिए किसान आन्दोलन में कूद पड़ा।
’’बलचनमा’’ को ’’बालचन्द्रः’’ के रूप में संस्कृत भाषा के माध्यम से पढ़ना संस्कृतानुरागियों के लिए निश्चय ही चित्ताकर्षक होगा, जिसके लिए डॉ. हृषीकेश झा का यह प्रयास संस्कृतपाठकों एवं भावी संस्कृतलेखकों व अनुवादकों के लिए प्रेरणास्पद है। उपन्यास का प्रारम्भ ही हृदयविदारक उस घटना से होता है जिसमें केवल दो आम चुराने के लिए बालचन्द्र के पिता को एक खम्भे से बांधकर तड़पा-तड़पाकर मार दिया जाता है।
इसी घटना का वर्णन करते हुए लेखक एक छोटे से 12 साल के बच्चे बालचन्द्र की आपबीती बताते हुए लिखते हैं- ’’मम जीवनस्य सर्वप्रथमा घटना इयमेव यद् भूस्वामिनो गृहे एकस्मिन् स्तम्भे बद्धः मम पिता ताडितः आसीत्। तस्य जघने, पृष्ठे बाहौ च दण्डाघातस्य चिह्नानि स्पष्टानि आसन्। शरीरे आघातकारणात् स्थाने-स्थाने चर्म अपि अभिद्यत। अश्रुधाराभिः कपोलौ वक्षःस्थलं च क्लिन्नम् अभूत्। मुखाकृतिः कृष्णवर्णा, ओष्ठौ च शुष्कौ आस्ताम्। किंचिद् दूरे एकस्मिन् काष्ठासने यमराज इव मध्यमः स्वामी उपविष्ट: आसीत्।… मम पितामही कम्पमानाभ्यां हस्ताभ्यां स्वामिनः पादौ धृतवती। व्यग्रताधिक्यात् तस्याः मुखात् केवलम् एतावन्मात्रं निरगच्छद् यद् अस्य प्राणान्तः भविष्यति । क्षम्यतां स्वामिन्, क्षम्यताम्। मुच्यताम् अयं निरीहः।… भयवशात् मम अनुजायाः तु वागेव अवरुद्धा अभूत्।’’ (पृष्ठ सं. 1)
अपनी नियति को स्वीकार करते हुए पीड़ित और शोषित बालचन्द्र के ये शब्द पाठक के हृदय को कचोटने वाले हैं- ’’ईश्वरस्तु कल्याणं विदधाति एव। चतुर्णां प्राणिनां परिवारं विहाय मम पिता मृतः एतदपि ईश्वरस्य सुकृत्यमेव। बुभुक्षया पीडिता माता पितामही च आम्रबीजानां चूर्णं खादति एतदपि ईश्वरस्य सुकृत्यमेव। एते स्वामिनः घृतदधिव्यंजनादिभिः साकं शाल्योदनं भुंजन्ते, एषापि ईश्वरस्य लीला वर्तते।’’ (पृष्ठ सं. 10)
अपने गाँव के भूस्वामियों की कुदृष्टि का वर्णन करते हुए बालचन्द्र के भावों को उकेरते हुए कवि लिखते हैं- ’’आस्माकीनो ग्रामः भूस्वामिनां ग्रामः। स्वामिगृहाणां यूनां वृद्धानां च नेत्रयोः कुदृष्टिरेवासीत् सततम्। इत्युक्ते एतेषां दृष्टिः कलुषिता एव भवति। यदि कस्यचिद् गृहे नववधूः आगच्छेत् तर्हि एतेषां दुर्जनानां कुदृष्टिः सर्वदा तामेव नवागतां वधूम् अन्विष्यति। भ्रमरवत् ताम् अभितः भ्रमन्तीति मन्यस्व। यावदेते कटाक्षेण नवागतां वधूं न पश्येयुः तावदेतेषां शान्तिर्न भवति। कदाचित् एवं भवति याम् अवलोकितुं पिता स्पृहयति तामेव पुत्रोऽपि। तेषु दिनेषु तेषामेव भूस्वामिनां वर्चस्वम् आसीत्। तेषां विरोधे अंगुलीनिर्देशोऽपि दुश्कर: आसीत्। कस्यापि नीचजातीयस्य प्रतिष्ठा अक्षुण्णा न स्यात् तथैव एषां प्रयत्नः।’’ (पृष्ठ सं. 48)
किसानों की प्राकृतिक, आर्थिक, सामाजिक और मानसिक दुर्गति का वर्णन करते हुए लेखक लिखते हैं- ’’दुर्दिनम् अपीडयत्तराम्, चिन्ता प्राणघातिनी जाता, ऋणम् आदाय क्षेत्रे उप्तेऽपि धान्यानि शुष्कानि जातानि। वृषभं विक्रीय धनं राज्ञे महाजनाय च दत्तम्, तथापि ऋणशेष: अवर्तत एव। भूस्वामिनाम् अत्याचारः विरुध्यताम्, कृषकाः जागरूकाः भवन्तु….’’ (पृष्ठ सं. 116)
बालचन्द्र के अन्तिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखते हैं- ’’तस्मिन् क्षणे मृत्युं सम्मुखे नृत्यन्तं मे मनः चक्रवत् भ्रमति स्म। पुत्री, पत्नी, माता, इक्षुः, कुटीरे सुप्तौ स्वयंसेवकौ, ययोः मुखे प्रायः वस्त्रखण्डं निवेशितम् आसीत्, सर्वं स्मृतिपथम् आयातम्। ’’श्रमिकाः एव भोक्तारः’’, ’’धरित्री कस्य यः कर्षति तस्य’’, कृषकाणां स्वातन्त्र्यम् आकाशात् नैव पतति, कर्षितात् क्षेत्रात् एव स्वातन्त्र्यम् उद्गच्छति’’ इत्यादयः घोषणाः कर्णयोः गुंजन्ति स्म। वृद्धः शिंशपाशवृक्षः नतः सन् अधुनापि मम शिरःप्रदेशं चुम्बन्नस्ति इव। अस्मिन्नेव क्षणे आश्रमस्य पश्चात्तनभागात् कश्चन जनः धावन् आगतः, तस्य हस्ते नेपालदेशीयः खड्गः आसीत्। अहं बद्धः आसम्। सर्वाणि अंगानि जाले निबद्धानि आसन्। अहं च दन्तैः एकस्य मणिबन्धप्रकोष्ठं धृतवान् आसम्। अस्यां स्थितौ एकः मल्लः मम शिरसि दार्ढ्यपूर्वकं दण्डं प्राहरत् वारद्वयम्। अचेतनः सन् अहं भूमौ लुठितः आसम्।’’ (पृष्ठ सं. 131-132)
सम्पूर्ण उपन्यास वेदना, दमन, शोषण, भूखमरी से आप्लावित होने के बावज़ूद एक रोशनी की राह दिखाता है। ’’बालचन्द्र’’ को एक पाठक स्वयं में अनुभूत कर सके, इसकी अपार शक्ति इस उपन्यास में है। ग्रामीण जीवन से किसी भी रूप में जुडे़ व्यक्ति के लिए इसे समझ पाना और उस असहनीय पीड़ा को अनुभूत करना कठिन नहीं होगा। संस्कृत भाषा के माध्यम से इस आंचलिक लोककथा के द्वारा भयोत्पादक त्रासदी और उसके विरुद्ध खड़े होने की शक्ति प्रदान करता है यह उपन्यास।
भाषा और शब्दप्रयोग की यदि बात कही जाए तो उपन्यासकार ने मिथिला के स्थानीय ग्रामीण शब्दों का बेजोड़ प्रयोग किया है लेकिन जब भाषानुवाद किया जाता है तो इस प्रकार के शब्दों का सटीक अनुवाद कर पाना दुरुह होता है। किसी अनूदित पुस्तक की समीक्षा के लिए आवश्यक होता है कि उसके मूल स्वरूप को भी जाना जाए। जिन भी पाठकों ने इस उपन्यास के मूल हिन्दी स्वरूप को पढ़ा होगा, उन्होंने यह निश्चित रूप से पाया होगा कि इसके स्थानीय ग्रामीण शब्दों ने ज़मींदारों की क्रूरता, दुराचार, घमण्डी स्वभाव और स्वयं को ईश्वर मानने के दम्भ को बख़ूबी प्रदर्शित किया है। संस्कृत भाषा के माध्यम से यद्यपि भावात्मक सटीक विश्लेषण करने का अप्रतिम प्रयास किया गया है तथापि इन दुर्भावों को प्रदर्शित करने में संस्कृत कुछ दयालु-सी प्रतीत होती है।
एक पाठक जितनी घृणा इन ज़मींदारों के प्रति हिन्दी के स्थानीय शब्दों के माध्यम से कर पाता है, उतनी इस संस्कृतानुवाद के माध्यम से शायद सम्भव नहीं। और यही कारण है कि संस्कृतानुवाद उपन्यास की कथा को तो पूरी तरह से प्रदर्शित करता है किन्तु उसके दमनकारी क्रूर व्यक्तित्व को अंशतः ही। यही कारण है कि संस्कृतानुवाद में भी डॉ. हृशीकेष झा ने अनेक अंग्रेज़ी व अन्य भाषा के शब्दों को बिना अनुवाद के ही प्रयोग किया है जैसे- बच्चू , मनिस्टर, कलस्टर, मजिस्टर, मिनिस्टर, ट्रेनयानम्, रामखेलावनः, ज़िन्दाबाद, कामरेड्, कैम्पकारागारे, मनखप, सोशलिस्टबन्धवः, धन्नो चाची, पचकौड़ीबाबू-महोदयस्य, सुगनी, रेलस्थानकम्, विझओ, चुन्नी, चित्रवर्णा छागी, चायपानानन्दम्, लिथो।
उपन्यास के दादी, माँ, मालकिन, रेवनी, बालचन्द्र, राधाबाबू, फूलबाबू, मोहनबाबू, डॉ. रहमान, धन्नोचाची, सुगनी के साथ आए अनेक पात्रों से जुड़ी विविध घटनाओं का उल्लेख किया गया है किन्तु लेखक का यह वैशिष्ट्य है कि किसी भी पल यह उपन्यास अपने मूल कथानक से नहीं भटकता है।
यह अनूदित रचना और हिन्दी मूलकथा को समान रूप से ही पाठकों के समक्ष रखा गया है। मूल हिन्दी और संस्कृतानुवाद को यदि साथ-साथ पढ़ा जाए तो प्रायः भावात्मक दृष्टिकोण से अक्षरशः अनुवाद करने का सार्थक प्रयास किया गया है जिसके लिए डॉ. हृषीकेश झा साधुवाद के पात्र हैं। पुस्तक में कुछ स्थानों पर टंकण अशुद्धियाँ अवश्य हैं जिसे आगामी संस्करण में सुधारा जा सकता है।
संस्कृतानुवाद की भूमिका में अनुवादक डॉ. झा ने अनुवाद की दुष्करता का उल्लेख हुए लिखा है- ’’अनुवादकार्ये मूलकारस्य भावसंरक्षणं, विशिष्य देश्यशब्दानां भावस्फोरणक्रमे श्लेषालंकारस्थलेषु च कियत् कठिनम् इति अनुवादकाः एव जानीयुः। (भूमिका पृष्ठ सं. 2) एक अनुवादक जहाँ मूललेखक के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए अपने प्रयासों की सार्थकता हेतु संघर्ष करता है वहीं एक समीक्षक उन दोनों (मूल और अनुवाद) की गम्भीरता, सहजता, मौलिकता, सहभाव और सटीकता को जानने के लिए प्रयत्नशील होता है।
निश्चय ही एक समीक्षक के रूप में इस पुस्तक को जानने का जो अवसर है, वह एक पाठक के रूप में ’’बालचन्द्र’’ के साथ यात्रा करने के आनन्द से बहुत कम है। एक पाठक इस उपन्यास को पढ़ते हुए बालचन्द्र के साथ ही दुःख झेलता है, दुःख से मुक्ति के लिए छटपटाता है और अपने जीवन के लक्ष्य को समझता है और उस लक्ष्य के लिए अपने जीवन को आहूत कर देता है और इसमें सबसे बडे़ सन्तोष का विषय यह है कि यह मूल उपन्यास के साथ-साथ उसके संस्कृतानुवाद में भी होता है।
अतः मेरा विश्वास है कि संस्कृतानुरागियों के लिए स्वातन्त्र्यप्राप्ति से पूर्व ग्रामीण जीवन की त्रासदियों का अनुभव करने और उस अनुभव से उत्पन्न सामर्थ्य से संघर्ष के कुछ कदम उठाने लिए यह उपन्यास प्रत्येक पाठक को पूर्णतः सशक्त बनाने की क्षमता रखता करता है। संस्कृतानुवाद के इस प्रकार के अधिक से अधिक प्रयासों की वर्तमान युग को आवश्यकता है।
शुभास्ते पन्थानः सन्तु…. आपके पथ शुभ हों… इत्यलम्…
– डॉ. आशुतोष पारीक संस्कृतायनम्